देश में दलहन फसलों का रकबा घटने से आत्मनिर्भरता मिशन पर सवाल. क्या नीतियों को बदलने की जरूरत है?

pulse crops

भारत में दलहन क्षेत्र में आत्मनिर्भरता हासिल करने के लिए एक व्यापक दृष्टिकोण की आवश्यकता है। क्योंकि सरकारी आंकड़ों के अनुसार रबी दलहन फसलों का कुल उत्पादन क्षेत्र 7.53 लाख हेक्टेयर घट गया है। यह पिछले साल के 162.66 लाख हेक्टेयर से घटकर इस बार 155.13 लाख हेक्टेयर रहे गया है। इसमें चना, उड़द और मूंग का क्षेत्रफल शामिल है। इस साल खरीफ सीजन में दलहनों का रकबा 5.41 लाख हेक्टेयर से घटकर 5.41 लाख हेक्टेयर हो गया है। इस कम रकबे से मांग और आपूर्ति के बीच का अंतर बढ़ सकता है, जिससे देश में दालों का बड़े पैमाने पर आयात हो सकता है। सरकार दलहन क्षेत्र में आत्मनिर्भरता की दिशा में प्रयास कर रही है ताकि भारत 2027 तक दलहन क्षेत्र में आत्मनिर्भर बन सके।

अब सवाल उठता है कि खरीफ और रबी सीजन में दलहनों की बुवाई इतनी कम क्यों रही है, जबकि दालों की आयात निर्भरता 2013-14 में 19 प्रतिशत से घटकर 2021-22 में लगभग 9 प्रतिशत रह गई थी। नीति आयोग ने अनुमान लगाया था कि 2030-31 तक इसमें और गिरकर करीब 3 फीसदी रहने का अनुमान है। लेकिन जिस तरह से इस वर्ष दलहन फसलों का रकबा घटा है, दलहन के क्षेत्र में जलवायु परिवर्तन के दौर में हम देश में दलहन में आत्मनिर्भरता कैसे प्राप्त कर सकते हैं?

सिंचित क्षेत्रों में दलहन फसलों क्यों नहीं?

भारतीय दलहन अनुसंधान संस्थान, कानपुर के निदेशक डॉ. पीजी दीक्षित ने किसान से बातचीत में बताया कि दलहन फसलों की खेती मुख्य रूप से वर्षा आधारित भूमि में की जाती है। इस खरीफ सीजन में कम बारिश के कारण मध्य प्रदेश सहित आंध्र प्रदेश, तमिलनाडु, कर्नाटक जैसे दक्षिणी राज्यों में दलहन फसलों का रकबा कम हुआ है। इसी तरह, रबी सीजन में अक्टूबर में कम बारिश के कारण खेतों में नमी की कमी हो गई है, जिससे चने के रकबे में काफी कमी आई है, मुख्य रूप से महाराष्ट्र, राजस्थान, कर्नाटक और गुजरात जैसे राज्यों में। उन्होंने कहा कि दलहन और मोटे अनाज की खेती सिंचित और वर्षा आधारित क्षेत्रों में की जाती है और इन क्षेत्रों में मोटे अनाज की खेती को प्रोत्साहन मिलने से किसान मोटे अनाजों की ओर रुख कर रहे हैं।

दलहन के बजाए गेहूं और धान को दे रहे हैं प्राथमिकता

डॉ. दीक्षित ने कहा कि उत्तर भारत के किसान दलहन फसलों के सिंचित क्षेत्रों में दलहन की बजाय धान-गेहूं की फसल को तरजीह देते हैं, क्योंकि किसानों को दलहन फसलों की तुलना में धान-गेहूं में अधिक मुनाफा दिखाई देता है। इसके अलावा सिंचित क्षेत्रों में धान-गेहूं जैसी इसकी खरीद और प्रति एकड़ अधिक उपज होने से किसान दलहनी फसलों की खेती की ओर अधिक रुख कर रहे हैं।

धान-गेहूं में क्यों होता है ज्यादा फायदा?

मीडिया रिपोर्ट के मुताबिक 2017 में प्रकाशित मंत्रालय की रिपोर्ट, “रेट्रोस्पेक्ट एंड प्रॉस्पेक्ट्स,” कहती है कि 1990 के आसपास, , सिंधु-गंगा के मैदानी इलाकों में किसानों ने सिंचाई सुविधाओं में सुधार के कारण दालों को छोड़ दिया और अन्य फसलों की ओर स्थानांतरित हो गए। इसलिए सिंचित क्षेत्रों में धान-गेहूं की फसलों की तुलना में दलहनी फसलें बेहतर दिखती हैं, क्योंकि इन फसलों की बुवाई से लेकर बाजार तक की व्यवस्था किसानों को बेहतर लगती है। एक आंकड़े के अनुसार रबी में जहां गेहूं की औसत उपज 35 क्विंटल प्रति हेक्टेयर होती है, वहीं दलहनी फसलों में चने की औसत उपज मात्र 9-10 क्विंटल प्रति हेक्टेयर ही होती है। सिंचित क्षेत्रों में, अंतर बड़ा दिखाई देता है।

शुष्क क्षेत्रों में भी दलहन फसलों पर संकट?

शुष्क जलवायु वाले क्षेत्रों में किसानों के लिए दलहन की फसल बेहतर दिखती है। सूखे इलाकों में समय पर बारिश होती है तो किसान दलहन फसलों की ज्यादा बुवाई करते हैं। लेकिन सिंचाई द्वारा दलहन फसलों की खेती करना ज्यादा लाभदायक नहीं लगता है। हालांकि सरकार की प्रोत्साहन नीतियों की वजह से दालों का उत्पादन तेजी से बढ़ा है। वर्ष 2013 में कुल 183.34 लाख टन दालों का उत्पादन हुआ था। जो वर्ष 2023 में बढ़कर 278.10 लाख टन हो गया था।10 साल में इसमें 94.76 लाख टन की बढ़ोतरी हुई है। इस तरह 51 फीसदी से ज्यादा की बढ़ोतरी हुई , लेकिन मौसम ने किसानों को बेहतर सपोर्ट दिया है।

भविष्य में हालात सुधरेगे या आयात पर निर्भर रहेंगे

देश में जहां दालों की मांग बढ़ रही है, वैश्विक दलहन उत्पादन में हमारा हिस्सा लगभग 25 प्रतिशत है, जबकि खपत में हिस्सेदारी 28 प्रतिशत है। तीन प्रतिशत के इस अंतर को भरने के लिए हमें हर साल लगभग 25 से 27 लाख टन दालों का आयात करना पड़ता है, जो पिछले वित्त वर्ष में 23 लाख टन दालों का आयात किया गया था। अब रबी सीजन और खरीफ सीजन में जिस तरह से फसल का रकबा घटा है, उससे लगता है कि वित्त वर्ष 2024-25 में रिकॉर्ड 30 लाख टन दालों का आयात करना पड़ेगा। इसे देखते हुए यह संकट का विषय बन गया है। जलवायु परिवर्तन के दौर में अगर बारिश कम हुई तो सूखे इलाकों में दालों का रकबा घटेगा। वहीं 2030 तक 326.40 लाख टन दालों की जरूरत है।

ठोस नीति और कदम उठाने की जरूरत

यदि इस अंतर को कम करना है तो दलहन के क्षेत्र में प्रति हेक्टेयर उत्पादन बढ़ाने के साथ-साथ दलहन फसलों को सिंचित अवस्था में भी लाभदायक बनाए रखने की दिशा में कार्य करना होगा। भारत ने ताजा दलहन संकट से निपटने के लिए अगले पांच वर्षों में 325.47 लाख टन दलहन उत्पादन का लक्ष्य रखा है, जिसे प्राप्त करने के लिए दलहन अनुसंधान पर अधिक धन खर्च करना होगा। कम लाभ वाली फसलों पर ध्यान देना उन्हें दलहन की खेती के लिए प्रोत्साहित करना होगा। दूसरी ओर, किसानों को लाभकारी मूल्य सुनिश्चित करने के लिए एक ठोस नीति की आवश्यकता होगी।

 

 

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